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विश्व में भारत प्रमुख कार्बन उत्सर्जक देशों में तीसरे पायदान पर है और जलवायु परिवर्तन से होने वाली विकराल समस्याएं पिछले कुछ वर्षों से भारत समेत पूरी दुनिया में बढ़ गयी है मसलन बाढ़, तूफान, अप्रत्याशित मूसलाधार वर्षा, सूखा एवं बेहद गर्मी। पूरी दुनिया में इन सब आपदाओं से बड़ी भारी मात्र मानवीय व् आर्थिक क्षति हुई है,
भारत में लगभग सभी नगरो शहरों की स्थापना पूर्व या वर्तमान में किसी न किसी विशेष प्रयोजन से हुई है धार्मिक, औद्योगिक, प्रशासनिक आदि प्रयोजन के तहत और सभी बड़े नगर नदियों के किनारे ही बने और बसे है किन्तु बाद में इन शहरों के केंद्रीय महत्व बढ़ने के कारण इनका विस्तार होने लगा, जनसँख्या आदि बढ़ती गयी लोग नगरों में आके बसते गए, पिछले पंद्रह बीस वर्षो के अंदर देश के हर छोटे बड़े नगर का विस्तार हुआ लेकिन बेतरतीब व् अनियोजित ढंग से है प्रकृति पूजकों के देश में हालत यूँ है की नदी, पहाड़ जंगलों आदि प्राकृतिक स्थलों पर मानवीय अतिक्रमण व् कचरे के निस्तारण के स्थान बन जाने के कारण इको सिस्टम में व्यापक परिवर्तन हुऐ है, उत्तर भारत की दो प्रमुख नदिया गंगा व् यमुना जिसमे भारी मात्रा औद्योगिक घरेलु कचरे एवं सीवर जल को निस्तारित किया जाता है और यह कचरा सीवरेज जल निस्तारण विश्व रिकार्ड स्तर पर है इन नदियों में ये कचरे सीवरेज स्लज नदी तलहटी में जा के सेटल हो जाते है जिससे इनकी गहराई कम हो गयी है, इन नदी के तटों पर अतिक्रमण कर आज बड़े बड़े मॉल, औधोगिक इकाइयां, मकान व् बंगले बनाये जाचुके है और फलतः बरसात के दिनों को छोड़ दे तो बाकि दिनों में उसकी स्थिति उथले नाले के जैसे हो जाती है, अर्थात उसका प्रवाह क्षेत्रफल ही सीमित हो गया है यदि वह अपने पुराने स्वरुप में होती तो बाढ़ आने पर संभवतः इतनी तबाही न होती। इन नदियों की सहायक नदियों उनके उद्गम स्थल के ताल तलैये पोखरे का भी क्षेत्रफल धीरे धीरे अतिक्रमण से घटता रहा है। उत्तर भारत के प्रमुख महानगर कानपूर, इलाहाबाद वाराणसी में जल निकासी के यदि उचित प्रबंध नहीं है तो पुरे भारत की स्थिति तो बेहद भयावह व् सोचनीय ही होगी।
सी ई ई डब्लू की रिपोर्ट के अनुसार भारत की एक चौथाई जनसंख्या जो की गंगा बेसिन के किनारे रहती है और लगभग साठ प्रतिशत लोग इसके सहारे कृषि से जीवकोपार्जन में लगे है यदि अतिक्रमण व् इसी प्रकार कार्बन उत्सर्जन होता रहा तो मौजूदा समय के मुकाबले बाढ़ संभावनाएं छह गुना बढ़ जाएगी। और यह सच इस लिए भी है क्योंकी भारत के अन्य महानगरो में थोड़ा भी सामान्य से अधिक वर्षा होते ही बाढ़ जैसे हालात हो जाते है जैसे की हाई फ्लड लेवल की पिछले चार वर्षो के अंदर दुशरी बाढ़ गंगा और यमुना बेसिन के तटों पर बसे नगरों में आयी है और लाखो लोगो को भले ही कुछ समय के लिए ही सही निर्वासित जीवन जिन पड़ रहा है इसी तरह कुवम व् अड्यारके कारण चेन्नई में, झेलम के कारण श्रीनगर में, मीठी नदी के जरा से उफान से मुंबई जैसे महानगर बाढ़ जैसी भयंकर आपदा के चपेट में आ जाता है।
भारत में बढती जनसँख्या, उसके बसावट व् रोजगार नियोजन के लिए व्यापक तौर पर औद्योगीकरण के लिए भूमि अधिग्रहण किया गया, प्राकृतिक संसाधनो का दोहन किया गया लेकिन उस अनुपात में नगर नियोजन एवं पर्यावरण के संरक्षण पर केंद्र व् राज्यों ने कुछ खास ध्यान नहीं दिया जिससे जलवायु परिवर्तन के कारन होने वाली आपदाओं से हालात बदतर होते जारहे है।
भारत की कृषि जो की मानसूनी वर्षा पर निर्भर है जलवायु परिवर्तन के कारन पिछले पचास वर्षो से मानसूनी वर्षा में धीरे धीरे कमी होती देखी गयी है जिसका मुख्य कारण नमी युक्त हिमालयी पश्चिमी शीत हवाएं रुक सी गयी है। और तो और कही भूस्खलन तो किसी क्षेत्र में सुखा, कहीं तापमान वृद्धि से गरमी तो कोई क्षेत्र कई दिनों तक धुंध से आच्छादित रहता है। साथ ही जल प्रप्ति के लिए भूगर्भ जल के अंधाधुंध दोहन से जल स्तर चालीस फिट से अधिक नीचे गिर गया वो भी मात्र कुछ ही वर्षो में और इसी तरह के हालत बने रहे तो आने वाले तीस वर्षो में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता लगभग चालीस प्रतिशत कम हो जाएगी।
भारत व दुनिया के अन्य देशों के नीति नियंताओं को जलवायु संरक्षण के मामले में भूटान सरीखे देश से सीख लेने लायक है भूटान की नीति ग्रास नेशनल हैप्पीनेस इंडेक्स के हिसाब से बनती है जिसमे की हरित वन क्षेत्र साठ प्रतिशत से काम नहीं होने देना है इसी क्रम में भूटान ने पिछले साल घंटे भर में पचास हजार पौधे रोपण कर विश्व रिकार्ड बनाया। तो जनता, सरकार व् नीति नियंताओं को कामचलाऊ वाले तरीके को छोड़ अब गंभीरता से पर्यवरण संरक्षण की दिशा में कार्य करना होगा अन्यथा आने वाली पीढ़ियों को स्वछ वातावरण देने का संकल्प कभी संभव नहीं होगा।
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